• नवाब राय
उनके चाचा महाबीर ने उन्हें "नवाब" उपनाम दिया था, जो एक अमीर जमींदार थे।
जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा (भूख) से बावला मनुष्य ज़रा-ज़रा सी बात पर तिनक जाता है।”
बच्चों के लिए बाप एक फालतू-सी चीज – एक विलास की वस्तु है, जैसे घोड़े के लिए चने या बाबुओं के लिए मोहनभोग। माँ रोटी-दाल है। मोहनभोग उम्र-भर न मिले तो किसका नुकसान है; मगर एक दिन रोटी-दाल के दर्शन न हों, तो फिर देखिए, क्या हाल होता है।”
हमें अपने साहित्य का स्तर ऊंचा करना होगा, ताकि वह समाज की अधिक उपयोगी सेवा कर सके… हमारा साहित्य जीवन के हर पहलू पर चर्चा करेगा और उसका आकलन करेगा और हम अब अन्य भाषाओं और साहित्य के बचे हुए खाने से संतुष्ट नहीं होंगे। हम स्वयं अपने साहित्य की पूंजी बढ़ाएंगे।”
जीवन एक दीर्घ पश्चाताप के सिवा और क्या है!” (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
जीत कर आप अपने धोखेबाजियों की डींग मार सकते हैं, जीत में सब-कुछ माफ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है।”
हममें खूबसूरती का मायार बदला होगा (हमें सुंदरता के मापदंडों को फिर से परिभाषित करना होगा)।”
सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पांच साल का गरीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मां न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता न चला, क्या बीमारी है। कहती भी तो कौन सुनने वाला था। दिल पर जो बीतती थी, वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियां लेकर आएंगे। अम्मीजान अल्लाह मियां के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई है, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हैं।”
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(मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय, Biography of Munshi Premchand in Hindi) – मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य के एक महान कहानीकार व उपन्यासकार थे जिन्होंने अपनी अद्वितीय रचनात्मक क्षमता से हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी।
प्रेमचंद बचपन से ही पुस्तकों से बहुत ज्यादा लगाव रखते थे जिसकी वजह से उनका मन पुस्तकों की तरफ खींचता चला गया। पुस्तकें पढ़ना उनका शौक बन गया था। पुस्तकें पढ़ने की इसी प्रवृत्ति के कारण वे धीरे-धीरे लेखन के क्षेत्र में आ गए।
प्रेमचंद के द्वारा रचित कहानियां एकदम सरल और स्पष्ट है। उनकी कहानियों की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण यह रहा है कि उन्होंने आमजन के जीवन को अपनी कहानियों में दिखाने का प्रयास किया है और लोगों को अच्छा संदेश दिया है।
Table of Contents
नाम | मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) |
वास्तविक नाम | धनपत राय श्रीवास्तव |
जन्म | 31 जुलाई 1880, लमही, बनारस (भारत) |
माता | आनंदी देवी |
पिता | अजायब राय |
भाई | नहीं |
बहिन | सुग्गी |
पत्नी | शिवारानी देवी |
पुत्र | अमृतराय |
कहानियाँ | पंच परमेश्वर, ईदगाह, गुप्त दान, दो बैलों की कथा, बड़े घर की बेटी व अन्य |
उपन्यास | रंगभूमि, सेवासदन, गब्बन, गोदान, कर्मभूमि व अन्य |
योगदान | शिक्षाप्रद कहानियां और उपन्यासों की रचना |
प्रसिद्धि का कारण | उपन्यासकार, कहानीकार |
मृत्यु | 8 अक्टूबर 1936, बनारस (भारत) |
उम्र | 56 वर्ष |
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमही ( वाराणसी के पास एक गांव) में हुआ था। उनके जन्म का मूल नाम “धनपत राय श्रीवास्तव” था।
प्रेमचंद के पिता का नाम अजायब राय तथा माता का नाम आनंदी देवी था। अजायब राय एक पोस्ट ऑफिस में क्लर्क का काम करते थे तथा आनंदी देवी गृहणी थी।
प्रेमचंद अपनी माता आनंदी देवी के व्यक्तित्व से बहुत ज्यादि प्रभावित हुए। इसीलिए उन्होंने अपनी बड़े घर की बेटी कहानी में मुख्य पात्र आनंदी देवी को बनाया जिसे देखकर ऐसा लगता है कि संभवत: उन्होंने अपनी माता के संदर्भ में यह कहानी लिखी थी।
धनपत राय अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनकी दो बड़ी बहनें जन्म लेने के बाद ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। उनकी एक जीवित बहन थी जो उनसे बड़ी थी जिसका नाम सुग्गी था।
जब बालक धनपत राय 7 वर्ष के हुए तब उन्हें लमही के एक मदरसे में पढ़ने के लिए भेजा गया।
विधाता की होनी को कौन टाल सकता था। दुर्भाग्यवश, जब धनपत मात्र 8 वर्ष के थे तब उनकी माता आनंदी देवी की एक लंबी बीमारी के चलते मृत्यु हो गई।
उनकी माता के देहांत हो जाने के बाद, धनपत का पालन-पोषण उनकी दादी मां ने किया। परंतु, दादी मां भी बहुत जल्द ही गुजर गई। जिसके कारण धनपत अकेले पड़ गए क्योंकि उनके पिता क्लर्क थे और उन्होंने दूसरी शादी की भी कर ली।
फिर भी धनपत को अपनी सौतेली माता से थोड़ा बहुत स्नेह जरूर मिला।
उन्होंने एक पुस्तक-होलसेलर के पास पुस्तकें बेचने का कार्य करना शुरू किया जिसके उपरांत उन्हें बहुत सारी पुस्तकें फ्री में पढ़ने के लिए मिल जाती थी और इसी वजह से पुस्तकों में उनकी रुचि बनी।
धनपत बनारस के क्वींस कॉलेज में अध्ययन कर रहे थे। जब वह नौवीं कक्षा में थे तब उनका विवाह करवा दिया गया। उस समय धनपत की उम्र मात्र 15 वर्ष थी।
यह विवाह धनपत के नाना ने तय करवाया था। लड़की एक संपन्न भू-मालिक के परिवार से थी। हालांकि, वह धनपत से उम्र में बड़ी, झगड़ालू, तथा कम सुंदर थी। ।
1896 के समय में, प्रेमचंद की पत्नी व सौतेली माता के बीच में झगड़े हुआ करते थे तब प्रेमचंद ने अपनी पत्नी को एक दिन फटकार लगा दी। जिसकी वजह से उनकी पत्नी ने आत्महत्या करने की कोशिश की। वह अपने मायके चली गई। प्रेमचंद ने अपनी पत्नी को वापस लाने के लिए कोई रुचि नहीं दिखाई जिसकी वजह से उनकी शादी टूट गई।
1906 में प्रेमचंद ने एक विधवा बालिका शिवरानी देवी के साथ विवाह किया। उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम अमृतराय था।
प्रेमचंद ने दसवीं पास करने के बाद बनारस के केंद्रीय हिंदू कॉलेज में प्रवेश लेना चाहा। परंतु, वहां की अंकगणित उन्हें समझ नहीं आई और बाद में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी।
पढ़ाई छोड़ने के बाद उन्होंने अध्यापन का कार्य शुरू किया जिसके लिए उन्हें ₹18 प्रति महीने की सैलरी पर रखा गया। बनारस के एक वकील के बेटे को पढ़ाने के लिए उन्हें ₹5 प्रति महीना मिला करता था।
1900 में प्रेमचंद ने गवर्नमेंट डिस्ट्रिक्ट स्कूल में एक असिस्टेंट टीचर की जॉब प्राप्त की। इस जॉब के लिए उन्हें ₹20 प्रति महीना मिला करता था।
अध्यापन कार्य के दौरान उन्हें काफी सारा समय मिल जाया करता था जिसमें उन्होंने लेखन कार्य को शुरू किया।
प्रेमचंद ने अपना पहला उपन्यास देवस्थान रहस्य लिखा और उपन्यास में अपने आप को नवाब राय नाम दिया। जिसकी वजह से उन्हें मुंशी प्रेमचंद के अलावा नवाब राय के नाम से भी जाना जाता है।
1909 में प्रेमचंद के द्वारा लिखे गए एक उपन्यास सोजे वतन के बारे में ब्रिटिश सरकार को पता चल गया। सोजे वतन में देश की आजादी से जुड़ी हुई कहानियां लिखी गई थी।
उस समय प्रेमचंद हमीरपुर जिले के एक स्कूल में अध्यापन का कार्य कर रहे थे। हमीरपुर जिले के ब्रिटिश कलेक्टर ने प्रेमचंद के घर पर रेड डालने के आदेश दिए। इस रेड में प्रेमचंद के घर में 500 के लगभग सोजे वतन की प्रतिलिपियां (फोटो कॉपी) पाई गई। सोजे वतन की उन सभी प्रतिलिपियों को वहीं पर जलाकर राख कर दिया गया।
इस घटनाक्रम के बाद जमाना उर्दू मैगजीन के एडिटर ने उनको यह सलाह दी कि वे अपने नाम को चेंज कर लें। उन्होंने बताया कि वह अपना नाम नवाब राय से प्रेमचंद रख ले।
इसके बाद प्रेमचंद ने अपने सभी साहित्यकारों को प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित करना शुरू कर दिया।
प्रेमचंद की लेखन कला ही ऐसी थी कि उनके द्वारा लिखी गई सभी कहानियाँ प्रसिद्ध हुई। उनकी कहानियों में सरलता व स्पष्टता दिखाई पड़ती है जिसकी वजह से यह आमजन को आसानी से समझ में आ जाती है। उनकी कहानियां मनोरंजन, भाव इत्यादि से भरी रहती है और अंत में एक शिक्षाप्रद संदेश देती है।
प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियां-
मुंशी प्रेमचंद की सभी कहानियों को एक-एक कर पढ़ने के लिए आगे दिए गए लिंक पर क्लिक करें- मुंशी प्रेमचंद की कहानियां
प्रेमचंद मात्र कहानीकार ही नहीं बल्कि एक बहुत बड़े उपन्यासकार भी थे। उनके द्वारा रचित उपन्यास बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। उनके द्वारा रचित कुछ उपन्यास निम्नलिखित हैं –
अन्य उपन्यास पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें ।
प्रेमचंद ने अपने अध्यापन कार्य को छोड़ दिया और 18 मार्च 1921 को बनारस चले आए। अपनी जॉब छोड़ने के बाद उन्होंने सिर्फ साहित्य कार्य पर ध्यान दिया। जॉब छोड़ने के बाद उनकी आर्थिक स्थिति भी खराब होने लग गई।
उन्होंने भारत के असहयोग आंदोलन में साथ देने के लिए महात्मा गांधी के कहने पर ब्रिटिश सरकार की जॉब छोड़ दी।
8 अक्टूबर 1936 को मुंशी प्रेमचंद की बनारस में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने भी उनके ऊपर एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था – प्रेमचंद घर में ।
यह भी पढ़ें – कबीरदास की जीवन परिचय
उत्तर- मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कहानीकार व उपन्यासकार थे। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को लमही, बनारस में हुआ था। प्रेमचंद को बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था जिसकी वजह से वह धीरे-धीरे लेखन के कार्य में आ गए। वहीं से उन्होंने कहानियां और उपन्यास लिखने शुरू किए। उनके द्वारा रचित कहानियां व उपन्यासों ने हिंदी साहित्य को एक नई मोड़ दी।
उत्तर- प्रेमचंद की प्रसिद्ध कुछ कहानियां – दो बैलों की कथा, बड़े घर की बेटी, पंच परमेश्वर, बूढ़ी काकी, कफन, ईदगाह, जुलूस, आखिरी मंजिल, ज्वालामुखी व अन्य।
उत्तर- मुंशी प्रेमचंद की माता का नाम आनंदी देवी तथा पिता का नाम अजायब राय था।
उत्तर- मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमही, बनारस में हुआ था।
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By: Sakshi Pandey
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अमूमन हिन्दी साहित्य का इतिहास अनगिनत होनहार शख्सियतों के हुनरों से खजाना है। लेकिन इसी कड़ी में एक नाम ऐसा भी है, जिसने अपनी कल्पना और कलम के समागम को साहित्य के पन्नों पर कुछ इस कदर उकेरा कि लोग उनकी कलम के कायल हो गए। दशकों बाद भी उनकी कहानियां हर बच्चे की जुबां पर हैं, तो उनके उपन्यासों की दास्तां के दीवाने भी कई हैं। हिन्दी साहित्य के सुनहरे इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाली वो अद्भुत हस्ती हैं मुंशी प्रेमचन्द्र। (munshi premchand biograophy in Hindi )
यहाँ पढ़ें : Mukesh Ambani Biography in Hindi
नाम | मुंशी प्रेमचन्द्र |
जन्मतिथि | 31 जुलाई 1880 |
जन्म स्थान | लमही, बनारस |
आयु | 56 वर्ष |
माता | आनन्दी देवी |
पिता | मुंशी अजायब राय |
पत्नी | शिवरानी देवी |
बेटा | अमृत राय |
मृत्यु | 8 अक्टूबर 1936 |
यहाँ पढ़ें : biography in hindi of Great personalities यहाँ पढ़ें : भारत के महान व्यक्तियों की जीवनी हिंदी में
यहाँ पढ़ें : डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जीवनी
मुंशी प्रेमचन्द्र का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश राज्य में बनारस (वाराणसी) जिले के लमही नामक गांव में हुआ था। मुंशी जी के बचपन का नाम (munshi premchand childhood name) धनपत राय था। तीन बहनों में सबसे छोटे भाई मुंशी जी नवाब राय के नाम से भी मशहूर थे।
सन् अट्ठारह सौ अस्सी, लमही सुंदर ग्राम। प्रेमचंद को जनम भयो, हिन्दी साहित काम।। परमेश्वर पंचन बसें, प्रेमचंद कहि बात। हल्कू कम्बल बिन मरे, वही पूस की रात।।
यहाँ पढ़ें : lata mangeshkar ki jivani in hindi यहाँ पढ़ें : वेंकैया नायडू जीवनी
मुंशी जी के पिता अजायब राय गांव के ही डाकघर में मुंशी थे, वहीं उनकी माता का नाम आनन्दी था, जिनके नाम का जिक्र मुंशी प्रेमचन्द्र की मशहूर कहानी बड़े घर की बेटी में आनन्दी का किरदार निभाने वाली मुख्य नायिका के रूप में मिलता है।
मुंशी प्रेमचन्द्र बचपन से ही अपनी मां और दादी के बेहद करीब थे। लेकिन मुंशी जी महज 8 साल के थे, जब उनकी माता का स्वर्गवास हो गया और कुछ समय बाद उनकी दादी भी चल बसीं। वहीं उनकी बड़ी बहन की भी शादी हो चुकी थी।ऐसे में मुंशी जी बेहद अकेले हो गए। इसी बीच पिता का तबादला गोरखपुर हो गया।
मंशी जी के बचपन का जिक्र करते हुए रामविलास शर्मा जी कहते हैं- “जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब पंद्रह वर्ष के हुए तब उनका विवाह कर दिया गया और सोलह वर्ष के होने पर 1897 में उनके पिता का भी देहांत हो गया।”
मुंशी जी नौंवी कक्षा में थे, जब उनका विवाह एक बड़े सेठ की बेटी से कर दिया गया था। हालांकि साल 1906 में शिवरानी राय से हुआ, जोकि एक बाल विधवा थीं।
यहाँ पढ़ें : Rajnath Singh biography in hindi यहाँ पढ़ें : ज्योतिरादित्य सिंधिया जीवनी
मुंशी जी ने 7 साल की उम्र में लमही में ही स्थित एक मदरसे से अपनी स्कूली शिक्षा शुरु की थी। मुंशी जी को बचपन से ही किताबें पढ़ने का बेहद शौक था। उन्होंने छोटी सी उम्र में पारसी भाषा में लिखित तिलिस्म-ए-होशरुबा किताब पढ़ ली थी। इसी दौरान मंशी जी को किताबों की दुकान पर नौकरी मिल गई। किताबों की बिक्री के साथ-साथ मुंशी जी को यहां ढ़ेर सारी किताबें पढ़ने का मौका मिला।
वहीं मुंसी जी ने एक मिशनरी स्कूल से अंग्रेजी भाषा की शिक्षा प्राप्त की, जिसके बाद उन्होंने जॉर्ज रेनॉल्ड्स के द्वारा लिखी मशहूर किताब ‘ द मिस्ट्री ऑफ द कोर्ट ऑफ लंदन ’ का आठवां संस्करण भी पढ़ा।
हालांकि किताबों के शौकीन मुंशी जी गणित में काफी कमजोर थे। नतीजतन उन्हें बनारस के क्वीन्स कॉलेज में दाखिला तो मिल गया लेकिन विश्वविद्यालय के नियमानुसार परीक्षाओं में पहली श्रेणी हासिल करने वाले विद्यार्थियों को ही आगे की पढ़ाई करने की अनुमति थी। वहीं प्रेमचन्द्र जी का नाम दूसरी श्रेणी में आने के कारण कॉलेज से उनका नाम काट दिया गया।
जिसके बाद उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की कोशिश की लेकिन गणित कमजोर होने के कारण यहां भी बात न बन सकी।
मुंशी जी की शिक्षा के बारे में लिखते हुए रामविलास शर्मा जी कहते हैं कि- “1910 में मुंशी जी ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद 1919 में अंग्रेजी, फारसी और इतिहास विषय से स्नातक किया। जिसके बाद मुंशी जी शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।
हालांकि 1921 में महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन का आह्वान करने के साथ ही मुंशी जी ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरी तरह से साहित्य के कार्य जुट गए।
यहाँ पढ़ें : कबीर दास जीवनी यहाँ पढ़ें : योगी आदित्यनाथ का जीवन परिचय
मुंशी प्रेमचन्द्र के अंदर लिखने का हुनर बचपन से ही था। उन्होंने अपनी पहली कहानी गोरखपुर में ही लिखि थी। यह कहानी एक पढ़े-लिखे नौजवान और एक पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाली महिला की प्रेम कहानी थी।
दरअसल पन्द्रह – सोलह साल तक की जिस उम्र में आम बच्चे दुनिया से रुबरु होने की कला सीखना शुरु करते हैं, उसी उम्र तक मुंशी जी जिंदगी की कई हकीकतों से वाकिफ हो चुके थे। राम विलास शर्मा की जुबां में – “सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पंडे-पुरोहित का कर्मकांड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था।”
शायद यही कारण था कि उनकी परिपक्कवता की झलक उनके साहित्य में आसानी से देखी जा सकती थी। मुंशी जी ने ‘देवस्थान रहस्य’ शीर्षक नाम से अपना पहला उन्यास लिखा, जिसे उन्होंने ‘नवाब राय’ केनाम से प्रकाशित कराया। ( munshi premchand ka jivan parichay )
साल 1909 में इन्सपेक्टर के पद पर तैनात मुंशी जी का तबादला कानपुर हो गया। इसी दौरान मुंशी जी की मुलाकात प्रसिद्ध उर्दू पत्रिका ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दया नारायण निगम से हुई।
जिसके बाद जमाना के हर संस्करण में मुंशी जी के द्वारा लिखी अनगिनत कहानियां और विचार छपने लगे। इन विचारों में राजनीतिक टिप्पणियों से लेकर तंज, रोचक कहानियां सहित कई मंनोरंजन की लेखनियां शामिल थीं।
मुंशी प्रेमचन्द्र जी की पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ 1907 में जमाना पत्रिका का हिस्सा बना। वहीं उनका दूसरा उपन्यास ‘प्रेमा’ भी 1907 में ही संपादित हुआ। यह उपन्यास विधवा विवाह पर आधारित था।
1907 में जमाना ने पहली बार मुंशी जी की कहानियों का कलेक्शन ‘शोज-ए-वतन’ के नाम से छापा।
1909 में ही मुंशी जी का तबादला हमीरपुर कर दिया गया। इस समय तक मुंशी जी न सिर्फ साहित्य की दुनिया में बल्कि समूचे हिन्दुस्तान में उर्दू लेखक के रुप में एक जानी-मानी हस्ती बन चुके थे।
इसी दौरान पहली बार ब्रिटिश हुकूमत की नजर मुंशी जी द्वारा लिखी कहानी संग्रह ‘शोज-ए-वतन’ पर पड़ी। ब्रिटिश सरकार ने मुंशी जी की इस किताब पर बैन लगा दिया और इसी के साथ मुंशी जी के घर की तलाशी के दौरान किताब की 500 कॉपियों को भी जला कर राख कर दिया गया।
इतने बड़े हादसे और मुंशी जी से ब्रिटिश हुकूमत की नाराजगी के बाद जमाना पत्रिका के संपादक दया नारायण जी ने जमाना के सभी संस्करणों से मुंशी जी का नाम नवाब राय से बदल कर प्रेमचन्द्र रख दिया और तब से मुंशी जी साहित्य की दुनिया में प्रेमचन्द्र के नाम से प्रख्यात हो गए।
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1921 में आजादी की आवाज बने महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का आगाज किया। गांधी जी के आह्वान पर समूचा देश ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक जुट हो गया। इसी कड़ी में राष्ट्रप्रेम से प्रेरित होकर मुंशी जी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और बनारस वापस लौट कर अपना सारा जीवन साहित्य को सौंपने का फैसला कर लिया।
1923 में मुंशी जी ने बनारस में सरस्वती प्रेस की नींव रखी। 1924 में मुंशी जी ने भक्तिकाल के मशहूर कवि सूरदास पर आधारित ‘रंगभूमि’का प्रकाशन किया। वहीं एक के बाद एक प्रेमचन्द्र द्वारा प्रकाशित कई लेखिनिया लोकप्रिय होती गईं।
1928 में मुंशी जी ने मशहूर उपन्यास गबन (munshi premchand gaban) का प्रकाशन किया। जिसके बाद बनारस में उन्हें मर्यादा पत्रिका का संपादक नियुक्त कर दिय गया और फिर बाद में मुंशी जी ने लखनऊ आधारित माधुरी पत्रिका के संपादन का कार्य संभाला।
यहाँ पढ़ें : अमित शाह की जीवनी
31 मई 1934 को मुंशी प्रेमचन्द्र हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई पहुंच गए। बंबई में मुंशी जी को अजंता सीनेटोन के बैनर तले फिल्म लेखन के लिए 8000 रुपए पर एक साल का कॉन्ट्रैक्ट मिला।
मुंशी प्रेमचन्द्र ने मोहन भवानी के निर्देशन में बनी फिल्म मजदूर की कहानी लिखी। इस फिल्म को दिल्ली और लाहौर में रिलीज किया गया। फिल्म फैक्ट्री में काम करने वाले गरीब मजदूरों पर आधारित थी। नतीजतन फिल्म की रिलीज के साथ ही कई दिल्ली और लाहौर के मील मदजूरों ने अपने मालिकों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया, जिसके चलते ब्रिटिश सरकार ने फिल्म पर पाबंदी लगा दी।
वहीं दूसरी तरफ बनारस में मुंशी जी की सरस्वती प्रकाशन कर्ज में डूब चुकी थी और मजदूर फिल्म से प्रभावित होकर प्रकाशन के कामगारों ने भी कई महीनों की तनख्वा बकाया रहने पर हड़ताल शुरु कर दी।
लिहाजा 4 अप्रैल 1935 को मुंशी जी बनारस के लिए रवाना ह गए। हालांकि बाद में बाम्बे टॉकीज के मालिक हिमांशु रॉय ने कई बार मुंशी जी से बंबई वापस आने की गुजारिश की लेकिन मुंशी जी बनारस छोड़ कर जाना मुनासिब नहीं समझा।
यहाँ पढ़ें : निर्मला सीतारमण की जीवनी यहाँ पढ़ें : अरविंद केजरीवाल जीवनी
बंबई से वापस आने के बाद मुंशी जी ने इलाहाबाद में बसने का फैसला किया। इसी दौरान1936 में मुंशी जी को लखनऊ आधारित प्रोग्रेसिव राइटर एसोसीएशन का अध्यक्ष चुना गया। इसी साल पिछले काफी दिनों से बिमार (munshi premchand death cause) होने के कारण 8 अक्टूबर 1936 को हिन्दी साहित्य के महान लेखक मुंशी प्रेमचन्द्र जी ने हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
1936 में ही मुंशी जी की मशहूर उपन्यास गोदान (munshi premchand godan) प्रकाशित हुई, जिसका प्रकाशन अंग्रेजी में ‘द गिफ्ट ऑफ काऊ’ के नाम से हुआ।शुल्ज ने गोदान का जिक्र करते हुए लिखा- गोदान एक बेहतरीन और संतुलित उपन्यास है। हालांकि मुंशी जी की रचनाएं उचित अनुवाद के अभाव में सीमित जनसंख्या तक ही पहुंच सुनिश्चित कर सकेंगी। जिसके कारण रविन्द्रनाथ टैगोर और इकबाल जैसे अन्य महान लेखकों की अपेक्षा मुंशी प्रेमचन्द्र का नाम देश के बाहर कुछ चुंनिदा लोग ही जान सकेंगे।”
मुंशी जी के निधन के बाद 1938 में उनकी आखिरी कहानी ‘क्रिकेट मैचिंग’ का प्रकाशन जमाना पत्रिका में किया गया।
मुंशी जी के मशहूर उपन्यास (munshi premchand novels)
Devasthan Rahasya | Asrar-e-Ma’abid | Awaz-e-Khalk |
Prema | Hamkhurma-o-Ham Sawab | Indian Press/Hindustan Publishing House |
SevaSadan | Bazaar-e-Husn | Calcutta Pustak Agency |
Rangbhoomi | Chaugan-e-Hasti | DarulIshaat |
Gaban | Ghaban | Saraswati Press, Benares; Lajpatrai& Sons, Urdu Bazaar |
Karmabhoomi | Maidan-e-Amal | MaktabaJamia, Delhi |
Godan | Saraswati Press |
Duniya ka Sabse Anmol Ratan | Zamana | 1907 |
Beti ka Dhan | Zamana | 1915 |
Saut | Saraswati Press | 1915 |
Panch Parmeshwar | Saraswati Press | 1916 |
Shatranj ke Khiladi | Madhuri | 1924 |
Idgah | Chand | 1933 |
Lottery | Zamana |
यहाँ पढ़ें: अन्य महान व्यक्तियों की जीवनी
Reference- 29 March 2021, munshi premchand Biography in Hindi , wikipedia
I am enthusiastic and determinant. I had Completed my schooling from Lucknow itself and done graduation or diploma in mass communication from AAFT university at Noida. A Journalist by profession and passionate about writing. Hindi content Writer and Blogger like to write on Politics, Travel, Entertainment, Historical events and cultural niche. Also have interest in Soft story writing.
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इस लेख में आप मुंशी प्रेमचंद की जीवनी Munshi Premchand Biography in Hindi हिन्दी में आप पढ़ेंगे। इसमें आप प्रेमचंद जी का परिचय, जन्म व प्रारंभिक जीवन, शिक्षा, साहित्य, निजी जीवन, मृत्यु जैसी की जानकारियाँ दी गई है।
Table of Content
उनकी कलम में इतनी शक्ति थी, कि उनके द्वारा रचित प्रत्येक रचना में कई रहस्य छुपे रहते थे, जो किसी ना किसी प्रकार के संदेश स्वयं के भीतर समेटे हुए रहते थे।
उर्दू व हिंदी के महान लेखकों में से एक मुंशी प्रेमचंद्र जी को बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार ‘शरतचंद्र चट्टोपाध्याय’ द्वारा “उपन्यास सम्राट” की उपाधि प्रदान की गई है। प्रेमचंद की रचनाएं यथार्थवाद और बहुमूल्य होती है।
मुंशी प्रेमचंद्र का वास्तविक नाम ‘धनपत राय श्रीवास्तव’ था। वे मुख्यतः उर्दू और हिंदी भाषा में अपने विचारों को लिखना पसंद करते थे। साहित्य जगत में उनके बेमिसाल योगदान को देखते हुए हर साल उनके जन्मदिन पर “मुंशी प्रेमचंद्र जयंती” भी मनाई जाती है।
कहा जाता है कि जब मुंशी प्रेमचंद सिर्फ 7 साल के थे, तभी उनकी माता का देहांत हो गया। बहुत छोटी उम्र में उनका विवाह संपन्न कर दिया गया।
अगले ही वर्ष जब वे 16 साल के हुए तभी उनके पिता भी चल बसे। मुंशी प्रेमचंद्र का जीवन बड़े ही कठिनाइयों से गुजरा, जहां उनके ऊपर बहुत कम उम्र में ही गृहस्थ की जिम्मेदारियां भी लाद दी गई।
घर की मुश्किल परिस्थितियों को देखकर उन्होंने कम आमदनी पर छोटी सी नौकरी भी की, जहां उन्हें थोक मूल्य किताबों की बिक्री करने वाले व्यापारी के यहां काम मिला। उन्होंने अपनी पढ़ाई के साथ अपनी रुचि को भी और गहरा किया।
अपने पहले रचना का जिक्र के रुप में उन्होंने एक नाटक प्रस्तुत किया। जो दुर्भाग्य वश कभी प्रकाशित नहीं हुआ। मुंशी जी के उपलब्ध लेखनो में उनकी पहली रचना उर्दू भाषा में रचित उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ थी, जिसे धारावाहिक में प्रकाशित भी किया गया था।
तत्पश्चात इसका हिंदी रूपांतरण किया गया, जिसका नाम ‘देवस्थान रहस्य’ रखा गया। वर्ष 1907 में प्रकाशित हुआ मुंशी जी का दूसरा उपन्यास उर्दू भाषा में रचित हमखुर्मा व हमसवाब था।
वर्ष 1910 में मुंशी प्रेमचंद्र का पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका नाम ‘सोज़े – वतन’ (देश का विलाप) था। गौरतलब है कि मुंशीजी “नवाब” नाम से अपनी सभी रचनाएं लिखते थे।
लेकिन देश भक्ति के रंग से ओतप्रोत उनकी इस रचना ने विदेशी सरकार के मन में भय खड़ा कर दिया, जिसके बाद उन्होंने इसकी सभी प्रतियां भी जप्त कर ली और मुंशी प्रेमचंद्र जी को इस तरह के लेख कभी न लिखने की चेतावनी भी दे डाली।
मुंशी प्रेमचंद्र जी अंग्रेजी सरकार द्वारा जनता के उत्पीड़न, शोषण और बाकी सामाजिक मुद्दों पर खुलकर लिखते थे। अक्सर उन्हें कोर्ट कचहरी में भी तलब कर लिया जाता था। जब उन पर लोगों को भड़काने के आरोप लगने लगे तो उन्होंने अपना नाम नवाब से बदलकर ‘प्रेमचंद्र’ रख लिया।
बीसवीं सदी में प्रकाशित होने वाली प्रसिद्ध उर्दू ‘जमाना पत्रिका’ के संपादक तथा मुंशी जी के पुराने मित्र दया नारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद्र नाम रखने की सलाह दी थी।
जिस तरह अंधेरे में एक दीपक चारों तरफ उजाला कर देता है, उसी प्रकार मुंशी प्रेमचंद्र जी की रचनाएं भी गुलामी के दौर में लोगों में उत्साह भरने का काम करता था। स्वतंत्रता संघर्ष में अपनी भागीदारी दिखाते हुए प्रेमचंद्र जी ने गांधी जी के आवाहन पर वर्ष 1921 में अपनी नौकरी का त्याग कर दिया।
अपने पहले वैवाहिक जीवन में कभी भी मुंशी प्रेमचंद्र सुखी नहीं रहे, ऐसा उनका मानना था। उनके पिता ने एक अमीर घराने की लड़की से मुंशी प्रेमचंद का विवाह 15 साल की कच्ची उम्र में ही कर दिया।
सौभाग्य से उनका दूसरा विवाह सफल रहा। उनकी दूसरी पत्नी ने हर कदम पर मुंशी प्रेमचंद्र जी का साथ दिया, जिसके वजह से उनकी तरक्की दिन दुगना रात चौगुना होने लगी।
ठाकुर का कुआँ.
गांव में जोखू और गंगी नामक एक गरीब दंपत्ति रहता था, जो निचले वर्ग से ताल्लुक रखता था। उसी गांव में ठाकुर परिवार भी निवास करता था, जो बेहद अमीर और ऊंची जाति का था। जोखू और गंगी बड़े ही मुश्किल से अपना गुजारा कर पाते थे।
गंगी ने उसे पानी ला कर दिया, लेकिन जैसे ही जोखू ने उसे पीने के लिए हाथ बढ़ाया उसे बड़ी ही बदबू आ रही थी। उनके पास शुद्ध पानी नहीं था।
बर्तन के शोर-शराबे के बाद जब हवेली में कुछ लोगों को कुएं के पास किसी के होने की भनक लगी, तो गंगी कैसे भी अपनी जान बचा कर बिना पानी लिए ही वापस घर आ गई और उसने देखा कि जोखू वही बदबूदार गंदा पानी पी रहा था, यह देखकर गंगी अपने आंसू नहीं रोक सकी।
यह कहानी हीरा और मोती नमक दो बैलों की हैं, जिन्हें झुरी ने बचपन से ही बड़े लाड प्यार से पालकर बड़ा किया था। एक दिन झुरी को किसी वजह से अपने ससुराल में अपने साले गया के पास अपनी दोनों बैलों को छोड़कर कहीं जाना पड़ा।
हीरा और मोती को यह लगा कि झूरी उन्हें किसी दूसरे मालिक को बेच दिया है। बहुत जल्द ही दोनों ही गया के चंगुल से छूट कर वापस घर पहुंच गई। यह देखकर झूरी तो बहुत खुश हुआ , लेकिन उसकी पत्नी इससे बड़ी गुस्सा हुई।
दुसरी बार जब हीरा और मोती को गया के पास छोड़ा गया, तो वह उनके साथ बड़ा ही खराब रवैया अपनाने लागा। वह अपनी गायों को हष्ट पुष्ट चार डालता, लेकिन वही हीरा और मोती को खराब भूसा डाल देता था। एक दिन कैसे भी दोनों ही बेल रस्सी छुड़ाकर भाग निकले और मटर के खेत में पहुंच गए।
वहां के लोगों ने हीरा और मोती को मटर का खेत बर्बाद करते देख लिया और उन्हें पकड़ कर बहुत यातनाएं दी। अंत में हीरा और मोती को एक कसाई के हाथों बेच दिया गया।
जब कसाई उन्हें अपने साथ ले जा रहा था तभी हीरा और मोती ने अपने मालिक के घर का रास्ता पहचान लिया और दौड़ कर उसके पास पहुंच गई। बड़े दिनों से गुमशुदा हीरा और मोती को देखकर झूरी और उसकी पत्नी बहुत खुश हुए।
यह कहानी समाज के एक ऐसे चेहरे को प्रदर्शित करता है, जहां बड़े बुजुर्गों के साथ अपमान तथा अन्याय किया जाता है। इस कहानी में बुद्धिराम और उसकी पत्नी रूपा द्वारा बूढ़ी काकी को नीचा दिखा कर अपमानित किया जाता है।
यह कहानी होरीराम नामक एक किसान की है, जिसके परिवार में उसकी पत्नी धनिया, दो बेटियां सपना और रूपा तथा एक बेटा गोबर रहता है। वह एक गरीब किसान होता है, जो बड़ी मुश्किल से अपने परिवार को पालता है। होरी और उसकी पत्नी की यह इच्छा होती है, की उनके पास भी एक गाय हो।
इसके पश्चात होरी का अंतिम संस्कार करने के लिए धनिया पंडित बुलाती है, जो यह शर्त रखता है, कि धनिया को अपनी बिरादरी वालों को भोजन करवाना पड़ेगा और पंडित को एक गाय दान करनी होगी।
मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु death of premchand.
मुंशी जी का निधन हिंदुस्तान कि साहित्य और कला जगत के लिए सबसे बड़ी क्षति थी। आज करोड़ों लोगों के दिलों में मुंशी प्रेमचंद्र जी अपनी रचनाओं के कारण जीवित हैं।
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हिन्दी कथा साहित्य के कुशल चितेरे मुंशी प्रेमचंद को हिंदी तथा उर्दू भाषा के सर्वकालिक महान लेखकों में से एक माना जाता है । उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य का वह सूरज है जिसकी चमक कभी कम नहीं हो सकती ।
उनकी कहानियों के पात्र आम जन-जीवन के इतने निकट होते हैं कि उन्हें समाज के हर वर्ग में देखा जा सकता है । प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, इन्हें नवाब राय तथा प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है।
उपन्यास लेखन के क्षेत्र में प्रेमचंद के योगदान को देखते हुए बंगाल के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरदचंद्र चट्टोपाध्याय ने इन्हे उपन्यास सम्राट के नाम से संबोधित किया था ।
साथ ही इनके प्रसिद्ध साहित्यकार पुत्र अमृत राय ने इन्हें कलम का सिपाही नाम दिया । हिंदी साहित्य जगत में अमर उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद को अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है।
सामाजिक कुरीतियों तथा मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को इन्होंने अपनी सशक्त लेखनी द्वारा इतने सजीव और मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया है कि पुस्तक पढ़ते समय कहानी के पात्र पाठक की आंखों के आगे सहज ही किसी चलचित्र की भांति साकार हो उठते हैं।
प्रिय पाठकों ! प्रेमचन्द का जीवन परिचय | Biography of Premchand in Hindi | premchand ka jivan parichay लेख के माध्यम से हम आपको बता रहे हैं कि हिंदी साहित्य के प्रथम उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद भारत के उन महान लेखकों में से थे जिन्होंने अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, रूढिवादियों एवं शोषणकर्ताओं पर कुठाराघात करके अपने पाठकों को न केवल स्वस्थ मनोरंजन दिया बल्कि सामाजिक बुराइयों के दुष्परिणाम को उजागर करते हुए जड़ से समाप्त करने का संदेश दिया।
लगभग आधी शताब्दी का समय बीत जाने के बाद भी प्रेमचंद की कथावस्तु का ताना-बाना हम समाज में ठीक वैसा ही पाते हैं । तो चलिए दोस्तों जानते हैं प्रेमचंद कि जीवनी/ कहानी के बारे में –
Table of Contents
प्रसिद्ध नाम | मुंशी प्रेमचंद |
अन्य नाम | नवाब राय |
वास्तविक नाम | धनपत राय श्रीवास्तव |
जन्म तारीख | 31 जुलाई 1880 |
जन्म स्थान | लमही गांव, वाराणसी, उत्तर-प्रदेश |
मृत्यु | 8 अक्टूबर 1936 |
पिता का नाम | मुंशी अजायब राय |
माता का नाम | आनन्दी देवी |
पत्नी का नाम | शिवरानी देवी |
पुत्र/पुत्री के नाम | श्रीपत राय , अमृत राय, कमला देवी |
ज्ञात भाषाएं | हिंदी, उर्दू |
कर्मभूमि | गोरखपुर |
शिक्षा | स्नातक |
व्यवसाय | अध्यापन, लेखन , पत्रकारिता |
प्रसिद्ध रचनाएं | गबन, गोदान, कफ़न ,रंगभूमि, कर्मभूमि, निर्मला |
मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से लगभग छः किलोमीटर दूर लमही गांव में एक साधारण मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनका असली नाम धनपतराय था। उनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, और माता का नाम आनन्दी देवी था ।
पिता डाकघर में मुंशी के पद पर सरकारी नौकरी करते थे। मुंशी प्रेमचंद बचपन में बहुत नटखट और शैतान बालक थे । उन्हें मिठाई के रूप में गुड़ खाने का बहुत शौक था । उस जमाने में उर्दू भाषा का सरकारी काम-काज की भाषा में विशेष प्रभाव था।
प्रेमचन्द के घराने में सभी उर्दू के जानकार थे, अतः पिता ने उन्हें भी प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू में दिलाने की शुरूआत की। गांव के करीब लालगंज नामक गांव में एक मौलवी के पास उन्हें उर्दू-फारसी शिक्षा के लिए भेजा ।
आरम्भिक शिक्षा मौलवियों से प्राप्त करने वाले प्रेमचन्द ने मैट्रिक की परीक्षा 1898 में पास कर ली थी । और उसके बाद स्थानीय विद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे । नौकरी के साथ-साथ इन्होंने अपनी पढ़ाई को जारी रखा ।
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इन्होंने 1910 में इतिहास, दर्शन, फारसी और अंग्रेजी में इण्टर की परीक्षा पास की और 1919 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, फारसी व इतिहास विषयों में द्वितीय श्रेणी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की, फिर शिक्षा विभाग में डिप्टी इंस्पेक्टर बने ।
प्रेमचंद कायस्थ परिवार से थे, उनका परिवार बड़ा था और मात्र 6 बीघा जमीन थी । प्रेमचंद के दादाजी गुरु सहाय लाल एक पटवारी थे। पिता डाक मुंशी थे जिनका वेतन लगभग ₹25 प्रतिमाह था । उनकी माता आनंदी देवी कुशल गृहिणी थीं ।
घरेलू वातावरण ऐसा था कि पिता नौकरी पर तो मां घरेलू काम-काज में ! बच्चा पढ़ रहा है या नहीं, इस बात को देखने वाला कोई न था। यही वजह थी कि प्रेमचन्द का स्वभाव खिलन्दड़ बन गया।
थोड़ी सी पढ़ाई, ढेरों खेल बचपन के खिलन्दड़ दिनों को प्रेमचन्द कभी न भूले। उनके उपन्यास और कहानियों में जगह-जगह उन दिनों के खेलों का जिक्र मिल जाता है। मां के साथ दादी का लाड़ प्यार भी खूब मिलता था।
इस तरह बचपन के दिन प्रेमचन्द के खूब मौज-मस्ती में गुजरे । पर, अभी उनकी उम्र सात साल की ही थी कि मां ऐसी गम्भीर रूप से बीमार पड़ीं कि उठ न सकीं।
बालक धनपत को बेसहारा छोड़कर मां इस दुनिया से सिधार गयीं। मां के निधन से जीवन में आयी रिक्तता का वर्णन मुंशी प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में जगह-जगह लिखा है।
उनके पिता ने 2 वर्ष बाद ही दूसरा विवाह कर लिया। प्रेमचंद को छोटी उम्र में ही सौतेली माँ का साथ मिला, निश्चित ही सौतेली मां से शायद उन्हें वह ममता प्राप्त नहीं हुई, जो एक माँ से प्राप्त होती है, शायद इसी कारण उनकी रचनाओं में कई जगहों पर सौतेली मां का वर्णन है।
15 वर्ष की छोटी उम्र में ही प्रेमचंद का विवाह हो गया । उनकी यह शादी उनके सौतेले नाना के द्वारा कराई गई थी। उस समय की रचनाओं के विवरण से ऐसा लगता है कि उनकी पत्नी ना तो देखने में ही सुंदर थी और शायद झगड़ालू प्रवृत्ति की थी।
इन सब कारणों से उनका यह विवाह लंबा नहीं चल सका, और उन्होंने अपनी पत्नी से संबंध विच्छेद कर लिया। शादी के एक वर्ष बाद ही उनके पिता का निधन हो गया, और परिवार का पूरा बोझ इन पर ही आ गया । उन्हें पाँच लोगों के परिवार का खर्च उठाना पड़ता था।
उनके आर्थिक संकट का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने पैसों के अभाव के कारण अपना कोट और किताबें बेच दीं थीं ।
सन् 1906 में प्रेमचंद ने शिवरानी देवी नाम की एक बाल-विधवा से दूसरा विवाह कर लिया । शिवरानी देवी से उनको तीन संतान थी – श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी ।
शिवरानी देवी के पिता फतेहपुर के पास रहने वाले एक जमीदार थे। समय के उस दौर में एक विधवा से विवाह करने वाले प्रेमचंद के साहसी व्यक्तित्व का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
दूसरे विवाह के पश्चात प्रेमचंद की परिस्थितियों में बदलाव आया, आर्थिक संकट कम हो गए, वह अपने लेखन कार्य को अधिक सजगता से करने लगे , और उनकी पदोन्नति हुई और वे स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर बन गए ।
ये प्रेमचंद जी के खुशहाली के दिन थे , इन्ही दिनों इनकी पाँच कहानियों का संग्रह “सोज़े वतन” प्रकाशित हुआ , और बहुत लोकप्रिय हुआ।
Premchand Ki Jivani in Hindi में उनकी साहित्यिक रुचि के बारे में आपको यहाँ बताने जा रहे हैं- प्रेमचंद को बचपन से ही पढ़ने का बड़ा शौक था।
उन्होंने उस जमाने के मशहूर लेखकों रतननाथ सरसार , मिर्जा रुसवा और मौलाना शरर की कृतियों को बड़े चाव से पढ़ा और उसका मनन किया।
“ तिलिस्म होशरुबा ” उस जमाने की बहुत मशहूर तिलिस्मी और अय्यारी कथानक पर आधारित पुस्तक थी, कई खण्डों में थी, उन्होंने वह बारह-तेरह साल की उम्र में पूरी पढ़ डाली थी।
अंग्रेजी भाषा में लिखी लेखक रेनाल्ड की “मिस्ट्रीज ऑफ द कोर्ट ऑफ लन्दन” भी उन्होंने पढ़ी। मौलाना सज्जाद हुसैन की हास्य कृतियों का भी अध्ययन किया।
अय्यारी, तिलिस्म, रहस्य-रोमांच, हास्य कृतियों का शौक से अध्ययन करने वाले प्रेमचन्द उन विषयों के एकदम विपरीत सामाजिक जीवन पर आधारित उपन्यास और कहानियां कैसे लिखने लगे।
यह जरा ताज्जुब की बात लगती पर शायद कुदरत ने उन्हें कलम के सिपाही के रूप में ही उतारा था। सिपाही बनकर सामाजिक जीवन की व्यथा की कलम के माध्यम से रक्षा की और जीवन भर उसी काम में लगे रहे।
प्रेमचन्द ने अपनी लेखनी की शुरूआत भी उर्दू भाषा में की। धनपत राय के बजाय उन्होंने नवाबराय के नाम से लिखना आरम्भ किया।
उनकी पहली कहानी मात्र 17 वर्ष की उम्र में, 1907 में ज़माना पत्रिका में प्रकाशित हुई। कहानी का शीर्षक था ‘संसार का सबसे अनमोल रत्न’ ।
लेखन की शुरूआत की तो लिखते चले गये और कहानियां छपती चली गयीं। 1910 में उनका पहला कहानी संग्रह “सोज़े-वतन” ( राष्ट्र का विलाप ) शीर्षक से छपकर बाजार में आया ( क्योंकि यह राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत था ) तो अंग्रेज सरकार के कान खड़े हुए।
सोजे वतन के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने प्रेमचंद को तलब किया , तथा उन पर अपनी पुस्तक सोजे वतन के माध्यम से जनता को भड़काने का आरोप लगाया गया ।
सोज़े-वतन को जब्त कर उसकी प्रतियां जला दी गयीं। कलम के सिपाही पर कलम चलाने की पाबन्दी लग गयी। प्रेमचंद उस समय नवाब राय के नाम से लिखा करते थे।
नवाब राय पर सरकारी तौर पर अनेक प्रतिबन्ध लग गये। इन प्रतिबन्धों के कारण वे नवाब राय के नाम से न लिख सकते थे।
तब, उस समय के प्रसिद्ध पत्रकार प्रेमचंद के अभिन्न मित्र ज़माना पत्रिका के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें नया नाम दिया – प्रेमचन्द ।
और इसके बाद वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे। पत्रिका के लेखन कार्य की शुरुआत उन्होंने जमाना पत्रिका से ही शुरू की।
सन् 1920 में, महात्मा गाँधी जी के आन्दोलन से प्रभावित होकर उनके आह्वान पर प्रेमचन्द ने सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया ।
नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद कुछ समय तक मर्यादा पत्रिका का संपादन किया, फिर लगभग 6 वर्ष तक माधुरी नाम की एक अन्य पत्रिका का संपादन भी किया ।
फिर 1930 में बनारस में ही रहते हुए प्रेमचंद जी ने अपना ही स्वयं का एक मासिक पत्र हंस के नाम से प्रकाशित किया तत्पश्चात 1932 में जागरण नाम का एक और साप्ताहिक पत्र शुरू किया ।
1934 में रिलीज हुई मजदूर नामक फिल्म की कथा का लेखन इन्होंने ही किया परन्तु मुंबई (बम्बई) की सभ्यता और फिल्मी दुनिया की आवों-हवा उन्हें रास ना आई और अपने 1 वर्ष का कॉन्ट्रैक्ट का समय पूरा किए बगैर ही अपने 2 महीने की पगार छोड़कर बनारस वापस आ गए ।
1936 में उन्होंने अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता भी की। प्रेमचंद जी ने 1915 से कहानियां लिखना प्रारंभ किया तथा 1918 से उपन्यासों को लिखना भी प्रारंभ किया।
पंच परमेश्वर , प्रेमचन्द जी की हिन्दी में प्रकाशित पहली कहानी थी। उन्होंने 300 के लगभग कहानियां और15 उपन्यास लिखे। 3 नाटक, 10 अनुवाद 7 बाल-पुस्तकें, भाषण, पत्र, लेख और सम्पादन कार्य भी किया।
पर उनकी ख्याति का मूल आधार उपन्यास व कथा साहित्य बना। प्रेमचंद जी की कई रचनाओं का अनुवाद रूसी, जर्मनी, अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में हुआ । गोदान उपन्यास को उनकी कालजयी रचना माना जाता है ।
मुंशी प्रेमचंद की लेखन प्रतिभा साहित्य की विभिन्न विधाओँ में दिखाई देती है क्योंकि उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, लेख, समीक्षा, संस्मरण, संपादकीय आदि लगभग प्रत्येक क्षेत्र में साहित्य सृजन किया।
इसी कारण “उपन्यास सम्राट” उपाधि उन्हे अपने जीवन काल में ही मिल गई थी। सेवा सदन, गबन, कायाकल्प, प्रेमाश्रय, रंगभूमि और गोदान उपन्यास उनकी श्रेष्ठ कृतियों में गिने जाते हैं।
उनकी कहानियां मानसरोवर के आठ खण्डों में संकलित हैं। उनके निबन्ध ‘कुछ विचार’ नामक पुस्तक में संकलित हैं। सामाजिक और राजनीतिक निबन्ध ‘विविध प्रसंग’ में संग्रहीत हैं। कफन उनके द्वारा लिखी गई अंतिम कहानी थी ।
उनकी रचनाओं का मूल विषय राष्ट्रीय जागरण और समाज सुधार है, जिसकी वजह से उनकी रचनाएं आदर्शवाद से प्रेरित कही जाती है।
किसान, शोषित व मजदूरों के प्रति उनकी बहुत सहानुभूति होती थी। उनकी रचनाओं में आदर्श और यथार्थ का सहज चित्रण मिलता है।
मुंशी प्रेमचंद की भाषा सहज, सरल तथा पात्रों के अनुकूल है । इसी कारण उन्हें उपन्यास सम्राट कहा गया।
प्रेमचन्द का जीवन परिचय में हम आपको बता रहे है कि प्रेमचंद जी को हमेशा “मुंशी प्रेमचंद” के नाम से पुकारा जाता है परंतु उनके नाम प्रेमचंद के पहले ” मुंशी” शब्द कब और कैसे जुड़ा इस विषय में लोगों के बीच एक अलग प्रकार की बहस हमेशा रही है।
कुछ लोगों का कहना है प्रेमचंद जी एक अध्यापक थे तथा अध्यापकों को उस काल में मुंशी कहा जाता था, इसी कारण उन्हें मुंशी प्रेमचंद कहा जाने लगा।
इस मान्यता के अलावा कुछ अन्य लोगों का तर्क है कि प्रेमचंद जी कायस्थ थे, और उन दिनों कायस्थ लोगों के नाम के पहले सम्मान के तौर पर “मुंशी” शब्द का प्रयोग करने की परंपरा थी।
इन सभी तर्कों में सबसे प्रमाणिक तथ्य यह है कि – प्रेमचंद एवं ‘कन्हैयालाल मुंशी ‘ के सह संपादन में “हंस” नाम का एक पत्र प्रकाशित होता था।
उसी पत्र की कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम छापने के स्थान पर केवल “मुंशी” ही छपा होता था और इसके साथ ही प्रेमचंद का नाम भी छपा होता था , अतः वह पढ़ने वाले को इस प्रकार दिखाई देता था – मुंशी, प्रेमचंद
हंस पत्र के संपादक दो अलग-अलग लोग प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे । परंतु लंबे समय तक इन दो नामों को पढ़ते-पढ़ते लोगों ने इसे एक ही नाम की तरह पढ़ना, बोलना शुरू कर दिया।
और इस प्रकार ‘ प्रेमचंद’ “मुंशी प्रेमचंद” बन गए। मुंशी शब्द उनके नाम का एक ऐसा अभिन्न उपसर्ग बन गया कि मुंशी शब्द के बिना उनका नाम अधूरा प्रतीत होता है।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में प्रेमचंद जी गंभीर रूप से बीमार हो गए , उनकी लंबी बीमारी के कारण उनका अंतिम उपन्यास “मंगलसूत्र” भी पूरा नहीं हो सका, जिसे उनके साहित्यकार पुत्र अमृत ने पूर्ण किया ।
अंततः महान रचनाकार “कलम के जादूगर” का निधन 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर नामक भयंकर बीमारी के कारण वाराणसी में हुआ।
लगभग 33 वर्षों के अपने लेखकीय जीवन में वे हिंदी साहित्य को ऐसी विरासत देकर गए हैं जो चिरकाल तक हमारी धरोहर रहेगी।
इस प्रकार अपने साहित्य-प्रेम की लौ से अपने जीवन को तिल-तिल जलाकर हिन्दी साहित्य के पथ को आलोकित कर यह दीप हमेशा के लिए बुझ गया ।
भारतीय डाक एवं तार विभाग की और से मुंशी प्रेमचंद जी की स्मृति में व उन्हें सम्मान प्रदान करने के लिए 31 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के महत्वपूर्ण मौके पर 30 पैसे का एक डाक टिकट जारी किया गया।
प्रेमचंद गोरखपुर के जिस विद्यालय में शिक्षक के तौर पर कार्यरत थे वहां “प्रेमचंद साहित्य संस्थान” की स्थापना की गई है । इसी विद्यालय में उनकी एक वक्ष प्रतिमा तथा उन से जुड़ी हुई वस्तुओं का एक संग्रहालय भी बनवाया गया है।
सरकार की ओर से प्रेमचंद जी की 125 वीं सालगिरह पर घोषणा की गई कि उनके गांव में प्रेमचंद जी के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन केंद्र की स्थापना की जाएगी।
प्रश्न – प्रेमचंद का जन्म कब हुआ ?
उत्तर – प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 में हुआ ।
प्रश्न – प्रेमचंद किस नाम से मशहूर हैं ?
उत्तर – प्रेमचंद, मुंशी प्रेमचंद के नाम से मशहूर हैं ।
प्र श्न – प्रेमचंद के कितने बच्चे थे ?
उत्तर – प्रेमचंद के दो बेटे तथा एक बेटी थी ।
प्रश्न – प्रेमचंद के दादाजी का क्या नाम था ?
उत्तर – प्रेमचंद के दादाजी का नाम श्री गुरु सहाय राय था ।
प्रश्न – प्रेमचंद के माता-पिता का क्या नाम है ?
उत्तर – प्रेमचंद के पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, और माता का नाम आनन्दी देवी था ।
प्रश्न – प्रेमचंद की पहली कहानी कौन सी है ?
उत्तर – प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित उनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ है ।
प्रश्न – प्रेमचंद की अंतिम कहानी कौन सी है ?
उत्तर – प्रेमचंद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ को माना जाता है।
प्रश्न – प्रेमचंद की मृत्यु कब और कैसे हुई ?
उत्तर – प्रेमचंद की मृत्यु 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर नामक भयंकर बीमारी के कारण वाराणसी में हुई ।
तो दोस्तों , प्रेमचन्द का जीवन परिचय | Premchand ki Jivani in Hindi | premchand ka jivan parichay | premchand biography in hindi लेख आपको कैसा लगा ?
हमें पूर्ण विश्वास है कि आपको महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद के जीवन परिचय से संबंधित वृहत एवं विस्तृत जानकारी अवश्य पसंद आई होगी।
दोस्तों जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि आपकी समालोचना से हमें बेहतर लिखने की प्रेरणा मिलती है । अतः हमारे लेख पढ़ने के बाद कमेंट बॉक्स में अपनी राय लिखकर हमें अवश्य भेजें।
अगर इस लेख से संबंधित आपके कोई प्रश्न हो तो आप कॉमेंट करके पूछ सकते हैं, लेख को पूरा पढ़ने के लिए धन्यवाद !
अंत में – हमारे आर्टिकल पढ़ते रहिए , हमारा उत्साह बढ़ाते रहिए , खुश रहिए और मस्त रहिए।
ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जियें ।
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इस लेख में प्रसिद्ध उपन्यासकार हिंदी साहित्य के पितामह मुंशी प्रेमचंद के जीवन परिचय (Biography of Munshi Premchand in Hindi) जानने वाले हैं। इस जीवन परिचय में इनके परिवार, माता-पिता, उनका बचपन का नाम, जन्म कब और कहां हुआ, प्रमुख रचनाएं और अंतिम पूर्ण उपन्यास आदि के बारे में विस्तार से जानेंगे।
मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य की नींव रखने वाले प्रथम ऐसे उपन्यासकार, कहानीकार है, जिन्होंने अपनी रचनाओं में निम्न वर्गीय लोग जैसे कि किसान आदि को महत्वपूर्ण स्थान दिया।
मुंशी प्रेमचंद का बचपन बहुत ही कष्टकारी था। फिर भी मुंशी प्रेमचंद ने अपना साहस नहीं छोड़ा और अपने इसी मेहनत के चलते आज भी श्रेष्ठ उपन्यासकार तथा कहानीकार है।
तो आइए मुंशी प्रेमचंद के बारे में विस्तारपूर्वक सभी जानकारी प्राप्त करते हैं कि उन्होंने किन परिस्थितियों का सामना करके इस उपलब्धि को प्राप्त किया है।
नाम | मुंशी प्रेमचंद |
अन्य नाम | श्रेष्ठ उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद, धनपत राय |
पिता का नाम | अजायब राय |
माता का नाम | आनन्दी देवी |
जन्म तारीख | 31 जुलाई 1880 |
जन्म स्थान | लमही गाँव (वाराणसी) |
पत्नी का नाम | शिवरानी देवी |
उम्र | 56 वर्ष |
पता | लमही गाँव, वाराणसी |
स्कूल | – |
कॉलेज | – |
शिक्षा | – |
मृत्यु | 8 अक्टूबर 1936 |
भाषा | उर्दू, हिंदी |
नागरिकता | इंडियन |
धर्म | हिन्दू |
जाति | कायस्थ परिवार (श्रीवास्तव) |
मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कहानीकार तथा उपन्यासकार है। मुंशी प्रेमचंद का स्थान हिंदी साहित्य में उपन्यासकार के रूप में सबसे ऊपर है। मुंशी प्रेमचंद अपनी रचनाओं को बड़ी ही मेहनत और लगन के साथ लिखा करते थे।
ऐसा भी कहा जाता है कि मुंशी प्रेमचंद जब अपनी रचनाओं को लिखना प्रारंभ करते थे तो वह उस किरदार में स्वयं को मान लेते थे और फिर अपनी रचनाओं की विशेषता प्रकट करते थे।
उनके इसी विशेषता के कारण उन्हें हिंदी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार और कथाकार के रूप में ख्याति प्राप्त है।
प्रेमचंद का जन्म वाराणसी जिले के लमही नामक ग्राम में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। प्रेमचंद का बचपन बड़ी कठिनाइयों में व्यतीत हुआ। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी उनका अध्ययन क्रम निरंतर चलता रहा।
मुंशी प्रेमचंद के पिता का नाम अजायब राय था और माता का नाम आनन्दी देवी था। मुंशी प्रेमचंद के पिता डाकखाने में एक नौकर के तौर पर काम करते थे।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के बचपन का नाम धनपत राय था। जब मुंशी प्रेमचंद की उम्र लगभग 8 वर्ष की थी तभी उनके माता का स्वर्गवास हो गया।
अपनी माता के स्वर्गवास हो जाने के पश्चात उनको जीवन में बहुत ही विषम परिस्थितियों से गुजारना पड़ा।
मुंशी प्रेमचंद के पिता अजायब राय ने दूसरा विवाह कर लिया, जिसके कारण प्रेमचंद चाह कर भी माता का प्रेम और स्नेह नहीं प्राप्त कर सके।
लोगों का कहना है कि अपने घर की भयंकर गरीबी के कारण उनके पास पहनने के लिए कपड़े भी नहीं थे और ना ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन होता था।
इन सब परिस्थितियों के बावजूद घर में उनकी सौतेली माता का व्यवहार में उनकी हालत को और खराब कर देता था।
लोगों का कहना है कि जब मुंशी प्रेमचंद महज 15 वर्ष के थे तभी उनके पिता ने उनका विवाह करा दिया था।
जिस लड़की से मुंशी प्रेमचंद का विवाह हुआ था, वह मुंशी प्रेमचंद से उम्र में बड़ी और बहुत ही बदसूरत भी थी।
मुंशी प्रेमचंद की पत्नी की सूरत बुरी तो थी, साथ ही उनके पत्नी का व्यवहार भी बहुत बुरा था। पत्नी की कटुता पूर्ण बातें ऐसी लगती थी कि जैसे कोई जले पर नमक छिड़क रहा हो।
उन्होंने अपनी एक रचना में स्वयं लिखा है “उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी, तब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।”
मुंशी प्रेमचंद ने अपने विवाह को लेकर अपने पिता के ऊपर भी कुछ लिखा है “पिताजी ने जीवन के अंतिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही साथ में मुझे भी डुबो दिया, मेरी शादी बिना सोचे समझे कर डाली।”
हालांकि मुंशी प्रेमचंद के पिता को उनके इस करनी का बाद में पश्चाताप भी हुआ।
मुंशी प्रेमचंद के विवाह के ठीक 1 वर्ष बाद उनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु के बाद अचानक पूरे परिवार का बोझ मुंशी प्रेमचंद के सर आ गया।
अब मुंशी प्रेमचंद के ऊपर 5 लोगों का खर्चा आन पड़ा। इन पांच लोगों मे उनकी विधवा माता, उनके दो बच्चे और उनकी पत्नी के साथ-साथ स्वयं का भी बोझ था।
प्रेमचंद के आर्थिक विपत्ति का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि उन्हें पैसों की इतनी जरूरत थी कि उन्हें अपना कोट भी बेचना पड़ा, कोट के साथ-साथ उन्हें अपनी पुस्तक बेचनी पड़ी।
वह जब एक बार अपनी पुस्तक को बेचने के लिए बुकसेलर के पास पहुंचे, तभी वहां पर एक स्कूल के हेड मास्टर आन पड़े और उन्होंने मुंशी प्रेमचंद को अपने विद्यालय में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
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मुंशी प्रेमचंद ने बीए तक की शिक्षा प्राप्त की। जीवन की विषम परिस्थितियों में भी उनका अध्ययन क्रम चलता रहा। उन्होंने उर्दू का भी विशेष ज्ञान प्राप्त किया।
जैसा कि आपको पहले बताया उनके बचपन का नाम धनपत राय था और मुंशी प्रेमचंद को उर्दू का विशेष ज्ञान था, इस कारण उन्होंने अपनी एक पत्रिका को अपने नाम धनपत राय के उर्दू अर्थ नवाब राय नाम से कहानी लिखते थे।
मुंशी प्रेमचंद ने आज इनका चलाने के लिए एक विद्यालय में अध्यापक पद को सुशोभित किया और अपने इस बात को अपने कर्तव्य और निष्ठा के साथ करने लगे।
अपने इसी कर्तव्य निष्ठा के दम पर वह उस विद्यालय के अध्यापक से सब इंस्पेक्टर बन गए। वह कुछ समय तक काशी विद्यापीठ में भी अध्यापक के पद को सुशोभित किया है।
प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य के हर एक विधाओं में अपनी उत्कृष्ट रचना के जरिए हिंदी साहित्य के लेखकों में अपना उत्कृष्ट स्थान बनाया है।
प्रेमचंद ने अपनी अधिकांश रचना उर्दू भाषा में लिखी, जिसके बाद में हिंदी में रूपांतरित किया गया। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी, जर्मनी, रूसी जैसे अनेक भाषाओं में भी अनुवाद किया गया।
प्रेमचंद ने कुल 300 के करीब कहानियां, 12 से भी अधिक उपन्यास और कुछ नाटक भी लिखे। कुछ साहित्य का इन्होंने अनुवाद कार्य भी किया।
कहानी लेखन की शुरुआत इन्होंने 1915 से करी, वही उपन्यास लिखने की शुरुआत 1918 से की थी। कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट भी माना जाता है।
इनकी कहानी रचना में कफन सबसे ज्यादा प्रख्यात माना जाता है और इनके अंतिम कहानी थी, जिसे इन्होंने हिंदी और उर्दू में लिखी थी।
इनकी सभी उपन्यासों में गोदान सबसे अधिक चर्चा में रहती है। प्रेमचंद की साहिब रचना का समय 33 वर्षों का रहा और इस 33 वर्षों में इन्होंने साहित्य की ऐसी विरासत आज की पीढ़ी को देकर गए, जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है।
प्रेमचंद के साहित्य का आरंभ 1901 में शुरू हुआ, जो पहली हिंदी कहानी सरस्वती पत्रिका मैं सोत नाम से प्रकाशित हुई और अंतिम कहानी कफन 1936 में प्रकाशित हुई।
प्रेमचंद की कहानियों का दौर 20 वर्षों तक चला, जिसमें अनेकों रंग देखने को मिले है। इनकी कहानी में काल्पनिक, पौराणिक, धार्मिक रचनाएं थी।
1908 में प्रेमचंद के पांच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाशित हुआ था, जो एक देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत था। जिस कारण अंग्रेजी सरकार ने प्रेमचंद को कहानी लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया।
इससे पहले तक प्रेमचंद धनपत राय नाम से अपने कहानियों का प्रकाशन करते थे। लेकिन अंग्रेजी सरकार के इस घोषणा के बाद उन्होंने अपना नाम बदलकर प्रेमचंद के नाम से आगे कहानियों का प्रकाशन करना शुरू किया।
प्रेमचंद नाम से इनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी 1910 में जमाना पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
उनके कृतियों में जीवन सत्य का आदर्श रूप उभर कर सामने आता है। इसके परिणाम स्वरूप वे सार्वभौमिक कलाकार के रूप में भी प्रतिष्ठित है।
मुंशी प्रेमचंद ने कहानी संग्रह, उपन्यास, नाटक, निबंध, अनुवाद इत्यादि रचनाएं की है, जिनमें से कुछ प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं।
सप्त सरोज, प्रेम पूर्णिमा, लाल फीता, नवनीत, बड़े घर की बेटी, नमक का दरोगा, प्रेम द्वादशी, प्रेम प्रमोद, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसून, प्रेम तीर्थ, प्रेम चतुर्थी, शब्द सुमन, प्रेम पंचमी, प्रेरणा, प्रेम प्रतिज्ञा, पंच प्रसून, समर यात्रा, नवजीवन आदि।
प्रेमचंद ने एक से बढ़कर एक उपन्यास लिखे, इनकी उपन्यास रचना इनके समय काल में बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुई। यहां तक कि आज भी उनके उपन्यास को लोग बहुत ही चाव से पढ़ते हैं।
प्रेमचंद का पहला उपन्यास 8 अक्टूबर 1903 को उर्दू साप्ताहिक ‘’आवाज-ए-खल्क़’’ में ‘अपूर्ण’ नाम से प्रकाशित हुआ था।
इनका दूसरा उपन्यास ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ था और 1907 में इस उपन्यास का ‘प्रेमा’ नाम से हिंदी में रूपांतरण होकर प्रकाशित हुआ।
प्रेमचंद ने अपने अधिकांश उपन्यास को उर्दू भाषा में लिखा। हालांकि अधिकांश उर्दू उपन्यासों का हिंदी में रूपांतरण किया गया।
1918 में प्रेमचंद ने “सेवासदन” नाम का उपन्यास की रचना की। हालांकि यह उपन्यास हिंदी में लिखी गई थी।
उर्दू में लिखी गई इस उपन्यास का नाम ‘बाजारे-हुस्न’ था। यह उपन्यास वेश्यावृत्ति पर आधारित है। इस उपन्यास के जरिए प्रेमचंद ने भारत के नारी की पराधीनता को बताया है।
1921 में अवध के किसान आंदोलन के दौर में प्रेमचंद की आई उपन्यास “प्रेमाश्रम” में किसान जीवन का वर्णन किया गया है। इसे भी प्रेमचंद ने ‘गोशाए-आफियत’ नाम से पहले उर्दू में लिखा था।
लेकिन सबसे पहले इसका हिंदी रूपांतरण का प्रकाशन हुआ। इस तरह 1903 से शुरू होकर 1936 तक ‘गोदान’ तक इनका उपन्यास पहुंचकर खत्म हुआ।
साल 1925 में प्रेमचंद की आई उपन्यास रंगभूमि में इन्होंने एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव लाने का प्रयास किया।
इनका उपन्यास रचना “गोदान” हिंदी साहित्य के उत्कृष्ट उपन्यास मानी जाती है, जिसका स्थान विश्व साहित्य में भी बहुत मायने रखता है।
इस उपन्यास में इन्होंने एक सामान्य किसान को पूरे उपन्यास का नायक बनाकर भारत के उस समय किसान स्थिति को बहुत ही सुंदर तरीके से वर्णित किया है।
मंगलसूत्र प्रेमचंद की अंतिम उपन्यास रचना थी, जो अधूरी थी। प्रेमचंद की कई उपन्यासों का दुनिया की कई भाषाओं में रूपांतरण किया गया।
इस तरह प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को जो ऊंचाई प्रदान की है, वह सच में सराहनीय है।
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सेवा सदन, रंगभूमि, कर्मभूमि, गोदान, गबन, कायाकल्प, निर्मला, सेवा सदन, प्रेम आश्रम, मंगलसूत्र आदि। मुंशी प्रेमचंद का अधूरा उपन्यास मंगलसूत्र है।
शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, रानी सारंधा आदि मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियां हैं।
मुंशी प्रेमचंद का विशाल कहानी साहित्य मानव प्रकृति, मानव इतिहास तथा मानवीयता के हृदयस्पर्शी एवं कलापूर्ण चित्र से परिपूर्ण है।
उन्होंने सांस्कृतिक उन्नयन, राष्ट्र सेवा, आत्म गौरव आदि के सचिव एवं रोचक चित्रण के साथ-साथ मानव के वास्तविक स्वरूप को दर्शाने में अपूर्व कौशल दर्शाया है।
उनकी कहानियों में दमन, शोषण एवं अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलंद करने की सलाह दी गई है तथा सामाजिक विकृतियों पर व्यंग के माध्यम से प्रहार किया गया है।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी रचना का केंद्र बिंदु मानव है। उनकी कहानियों में लोक जीवन के विभिन्न पक्षों का मार्मिक चित्रण किया गया है।
प्रेमचंद के कथावस्तु का गठन समाज के विभिन्न धरातल को स्पर्श करते हुए यथार्थ जगत की घटनाओं, भावनाओं, चिंतन – मनन एवं जीवन संघर्षों को लेकर चलता है।
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है।
इसके साथ ही इन्होंने मानव की अनुभूतियों एवं संवेदना को भी महत्व दिया है। मुंशी प्रेमचंद मानव मन के सूक्ष्म तम भाव का आकर्षण चित्र अपनी रचनाओं में लाने में सफल रहे हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी भाषा शैली के क्षेत्र में उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है। मुहावरों और लोकोक्तियों की लाक्षणिक तथा आकर्षक योजना ने उनकी अभिव्यक्ति को और भी अधिक सशक्त बनाया है।
उनकी कहानियों का वास्तविक सौंदर्य का मुख्य आधार उनके पात्रों की सहायता है, जिसके लिए मुंशी प्रेमचंद ने जन भाषा का स्वाभाविक प्रयोग किया है जैसे कि कल्लू, हरखू इत्यादि जैसे सरल शब्द।
उनकी भाषा में व्यवहारिकता एवं साहित्यकता का सजीव चित्रण है। मुंशी प्रेमचंद की भाषा शैली सरल, रोचक, प्रवाह एवं प्रभावपूर्ण है।
मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में आपको गरीबी, आभाव, शोषण तथा उत्पीड़न आदि जैसी दैनिक जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियां मिल जाएंगे।
मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में इन साहित्य रुचियो को इसलिए स्थान दिया है क्योंकि यह खुद भी इस परिस्थितियों से गुजर चुके हैं।
प्रेमचंद जब मिडिल स्कूल में थे, उन्होंने तभी से उपन्यास को पढ़ना आरंभ कर दिया था। मुंशी प्रेमचंद को बचपन से ही उर्दू आती थी, इसलिए उन्होंने अपने कुछ उपन्यास को उर्दू में लिखा है।
प्रेमचंद निसंदेह एक महान रचनाकार है, लेकिन इसके बावजूद भी प्रेमचंद के जीवन पर कई आरोप लगाए गए हैं।
प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा प्रेमचंद के जीवन पर लिखा गया रचना “प्रेमचंद घर में” उद्धृत किया हैं, जिसके माध्यम से कुछ लोग प्रेमचंद पर आरोप लगाते हुए कहते हैं कि इन्होंने अपनी पहली पत्नी को बिना वजह छोड़ दिया था और दूसरी विवाह के बाद भी इनका संबंध अन्य महिलाओं से रहा था।
कमल किशोर गोयनका द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘प्रेमचंद: अध्ययन की नई दिशाएं’ में इन्होंने प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाकर उनके महत्व को कम करने का प्रयास किया है।
प्रेमचंद के जीवन से संबंधित चाहे कुछ भी विवाद हो लेकिन अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के कारण ही आज भी युवाओं के बीच इनकी रचनाएं काफी ज्यादा प्रसिद्ध है।
यही कारण है कि आज भी इनके विवादों पर किसी का नजर नहीं पड़ता है। लोग इनकी काबिलियत को देखते हैं। इनके द्वारा लिखे गए अनेकों उपन्यास, कहानी और कविताओं की सराहना करते हैं।
प्रेमचंद जिन्हें ‘मुंशी प्रेमचंद’ के नाम से भी जाना जाता है। असल में तो इनका नाम धनपत राय था, लेकिन इनके नाम के आगे मुंशी शब्द किस तरह और कब जुड़ा इसके बारे में सटीक रूप से किसी को भी मालूम नहीं है।
हालांकि कुछ लोग कहते हैं कि प्रेमचंद अपने समय में अध्यापक रह चुके हैं और उस समय अध्यापकों को प्रायः मुंशीजी कहा जाता था।
यह भी कारण हो सकता है कि प्रेमचंद को मुंशी प्रेमचंद कहा जाता है। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि मुंशी शब्द कायस्थों के नाम के पहले सम्मान पूर्वक लगाया जाता था और इसीलिए प्रेमचंद के नाम के पहले मुंशी शब्द जुड़ गया।
इस तरह बहुत से लोगों का मानना है कि मुंशी शब्द एक सम्मान सूचक शब्द है, जो प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा।
प्रोफेसर सुखदेव सिंह के अनुसार प्रेमचंद ने कभी भी अपने नाम के आगे मुंशी शब्द का प्रयोग नहीं किया था।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि प्रेमचंद और कन्हैयालाल मुंशी के सह संपादन में “हंस” नामक पत्रिका इनके समय में निकलता था। यह कारण भी प्रेमचंद के नाम के आगे मुंशी लगाने का हो सकता है।
जैसा कि आपको बताया मुंशी प्रेमचंद का एक अपूर्ण उपन्यास मंगलसूत्र है। मंगलसूत्र अपूर्ण रहने का कारण है कि जब मुंशी प्रेमचंद मंगलसूत्र की रचना कर रहे थे और उन्होंने लगभग मंगलसूत्र उपन्यास की आधी रचना को पूरा कर लिया था, तभी अचानक उनकी तबीयत में कुछ बदलाव आया और उनकी मृत्यु हो गई। मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु 8 अक्टूबर 1936 को हुई।
कलम का सिपाही लेखक प्रेमचंद को कहा जाता है। क्योंकि प्रेमचंद के लेखन का मुकाबला आज के बड़े-बड़े लेखक भी नहीं कर पाए हैं। ये अपने समय के सबसे बड़े साहित्यकार हुए हैं, इसीलिए इन्हें कलम का सिपाही कहा जाता है।
प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था।
प्रेमचंद को कलम का सिपाही कहकर उनके बेटे ने ही इन्हें सम्मान दिया था। प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने प्रेमचंद की जीवनी कलम के सिपाही के नाम से लिखी थी, जिसका बाद में अंग्रेजी और उर्दू भाषा में भी रूपांतरण किया गया और चीनी, रूसी जैसे अन्य विदेशी भाषाओं में भी इसका रूपांतरण किया गया।
प्रेमचंद के बेटे अमृतराय द्वारा लिखी गई प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ का पहला संस्करण 1962 में प्रकाशित हुआ था।
प्रेमचंद को उनके उपन्यास सेवासदन के प्रकाशन के बाद उन्हें अच्छी ख्याति मिली और एक अच्छे उपन्यासकार के रूप में जाने जाने लगे। यह उपन्यास वेश्यावृत्ति पर आधारित उपन्यास है।
प्रेमचंद द्वारा 1922 में रचित इनके उपन्यास प्रेमाश्रम किसान जीवन पर आधारित है।
प्रेमचंद की आखिरी कहानी रचना मंगलसूत्र है। मंगलसूत्र को प्रेमचंद की आखिरी उपन्यास मानी जाती है।
31 जुलाई 1880
मुंशी प्रेमचंद के पिता डाकखाने में एक नौकर के तौर पर काम करते थे।
आज के इस लेख में आपको बताया कि हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद के बचपन का समय किस प्रकार से व्यतीत हुआ है और उनकी प्रमुख रचनाओं के बारे में भी हमने इस लेख के माध्यम से आपको बताया है।
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नमस्कार, मित्रो आज हमने आप सभी के लिए Munshi Premchand Biography in Hindi पर एक प्रेणा दायक सच्ची कहानी लाये है। जो एक ऐसे इंसान के जीवन पर आधारति है। जो अपने जीवन काल का सबसे महान कवियों में से एक कवी रहा है। जैसा की आप सभी जानते है की हिंदी एक सुंदर और विविध भाषा है, जिसमें अनगिनत बारीकियां और जटिलताएं हैं जो इसे बोलने वालों की एक विस्तृत श्रृंखला के अनुकूल बनाती हैं। इस कारण से, प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद सहित पूरे इतिहास में कई विद्वानों के लिए हिंदी एक महत्वपूर्ण विषय रहा है।
प्रेमचंद हिंदी को मुख्यधारा में लाने वाले नए रूपों और शैलियों को बनाने के लिए नवीन तकनीकों का उपयोग करके हिंदी भाषा के आधुनिकीकरण में अग्रणी थे। उन्होंने हिंदी व्याकरण और वाक्य रचना की पेचीदगियों को समझने के लिए बड़े पैमाने पर अध्ययन किया, और इन अंतर्दृष्टि को अपने लेखन में शामिल किया ताकि उन कार्यों का निर्माण किया जा सके जो सुलभ और व्यावहारिक दोनों थे।
प्रेमचंद के हिन्दी साहित्य में योगदान के बावजूद उनका जीवन भी चुनौतियों और संघर्षों से भरा रहा। ग्रामीण भारत में गरीबी में जन्मे प्रेमचंद ने जीवन भर अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए संघर्ष किया। हालाँकि, इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने कभी भी सार्थक और स्थायी रचनाएँ बनाने के अपने समर्पण में कोई कमी नहीं की, जो आज भी हिंदी की साहित्यिक विरासत को समृद्ध करती हैं।
{ मुझ उम्मीद है की मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय (Munshi Premchand Biography in Hindi) पढ़कर आपको काई बाते सिखने को मिल रही होगी }
दोस्तों मुंशी प्रेमचंद हिंदी भाषा के एक महान कवियों में से एक कवी है जिन्होंने अपने जीवन काल में हिंदी भाषा के महत्व को अपनी योग्यताओ के माध्यम से काफी उचाईयो तक ले कर गए है। मुंशी प्रेमचंद लमही में अपनी शिक्षा के बाद, प्रेमचंद जी वाराणसी चले गए जहाँ उन्होंने औपचारिक शिक्षा प्राप्त की। वहां उन्होंने अपनी जूनियर और सीनियर स्कूली शिक्षा विभिन्न संस्थानों से की। वह स्कूल में एक औसत छात्र था जिसके कारण उसे सोलह वर्ष की आयु में शिक्षक के सहायक (हाकिम) की नौकरी करनी पड़ी।
शिक्षक के सहायक के रूप में काम करने के बाद, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्ययन किया और वर्ष 1904 में इंटरमीडिएट पूरा किया। बाद में, उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करने के लिए रेनशॉ कॉलेज, कटक में प्रवेश लिया।
प्रेमचंद जी की हिंदी साहित्य में रुचि भी इस दौरान बढ़ी और उन्होंने हिंदी में गंभीर रचनाएँ लिखना शुरू कर दिया और अपनी प्रारंभिक लेखन उपलब्धियों के लिए प्रशंसा प्राप्त की। वर्ष 1907 में प्रेमचंद जी ने सोज-ए-वास्ल (विवाह की पीड़ा) शीर्षक से लघु कथाओं का एक संग्रह प्रकाशित किया, जिसे मुंशी प्रेमचंद अमन नाथ प्राग नारायण द्विवेदी ज्ञान चंद विद्याभूषण आदि सहित उस समय के प्रमुख साहित्यिक दिग्गजों से आलोचनात्मक प्रशंसा मिली। प्रोत्साहन, प्रेमचंद जी ने वर्ष 1907 में शतरंज के खिलाड़ी (शतरंज के खिलाड़ी) शीर्षक से छह लघु कथाओं का एक और संग्रह जारी किया।
बाद में, प्रेमचंद जी इलाहाबाद चले गए जहाँ उन्होंने लेडीज जर्नल के कार्यालय में काम करना शुरू किया। इस समय के दौरान, उन्होंने कुछ उपन्यास भी लिखे, जिन्हें पाठकों और आलोचकों से समान रूप से मिश्रित समीक्षा मिली, लेकिन वर्षों से उनके काम के लिए व्यापक मान्यता प्राप्त हुई। वर्ष 1912 में प्रेमचंद जी का विवाह शिवरानी देवी से हुआ, जो उस दौर में हिंदी साहित्य की एक प्रमुख महिला लेखिका भी थीं। साथ में उनके तीन बच्चे हुए जिन पर प्रेमचंद जी का काफी लगाव था।
प्रेमचंद जी एक विपुल लेखक थे जिन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास में कुछ सबसे प्रभावशाली कार्यों का निर्माण किया। उन्होंने अपनी पहली कहानी, “गोदान” (एक गाय का उपहार) 13 साल की उम्र में लिखी और जीवन भर कई प्रशंसित कहानियों, उपन्यासों और नाटकों को लिखा। प्रेमचंद ने अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भी लिखना नहीं छोड़ा। अपने जीवन के अंतिम चरण के दौरान भी जब वे बीमारी और गरीबी से जूझ रहे थे, तब भी उन्होंने लिखना जारी रखा और अपनी कुछ महान कृतियों को भावी पीढ़ियों के लिए अपनी विरासत के रूप में पीछे छोड़ गए। उनका लेखन वर्षों से कई लेखकों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है, और आज भी पाठकों को प्रभावित करता है।
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इज्जत का खून इस्तीफा ईश्वरीय न्याय एक आँच की कसर कप्तान साहब कर्मों का फल अन्धेर अपनी करनी अमृत आखिरी तोहफ़ा आत्म-संगीत | कोई दुख न हो तो कौशल़ गैरत की कटार गुल्ली डण्डा घमण्ड का पुतला ज्योति जुलूस ठाकुर का कुआँ त्रिया-चरित्र तांगेवाले की बड़ तिरसूल दण्ड दुर्गा का मन्दिर | दूसरी शादी दिल की रानी दो सखियाँ नबी का नीति-निर्वाह नरक का मार्ग नसीहतों का दफ्तर नाग-पूजा निर्वासन पंच परमेश्वर पत्नी से पति बन्द दरवाजा | पुत्र-प्रेम प्रतिशोध प्रेम-सूत्र परीक्षा पूस की रात बेटोंवाली विधवा बड़े घर की बेटी बड़े भाई साहब बाँका जमींदार मैकू मन्त्र मनावन | मुबारक बीमारी र्स्वग की देवी राष्ट्र का सेवक लैला विजय विश्वास शंखनाद शूद्र शराब की दुकान शादी की वजह स्वांग होली की छुट्टी दूध का दाम | स्त्री और पुरूष स्वर्ग की देवी सभ्यता का रहस्य समर यात्रा समस्या स्वामिनी सिर्फ एक आवाज सोहाग का शव होली की छुट्टी नम क का दरोगा गृह-दाह |
मित्रो मुझे उम्मीद है की आपको हमारी पोस्ट Munshi Premchand Biography in Hindi पर मुंशी प्रेमचंद जी जीवनी पढ़ने में काफी सहायता मिली होगी की कैसे और किस तरह जीवन जिया जा सकता है। मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में आपको ऐसी कई बाते जानने को मिलेगी जो इन्होने अपने जीवन को आधार मान कर लिखी है। दोस्तों अगर आपको हमारा आर्टिकल पसंद आया है तो आप इसे शेयर करना ना भूले। धन्यवाद।
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1880 - 1936 | Banaras , India
The first prominent Hindi-Urdu fiction writer who gave artistic expression to social concerns through his novel and stories.
Pen Name : 'Prem'
Real Name : Dhanpat Rai Srivastav
Born : 31 Jul 1880 | Lamhi , Uttar pradesh
Died : 08 Oct 1936 | Banaras , Uttar pradesh
Prem Chand is among the greatest short-story writers and Novel-writers of both Urdu and Hindi languages. The adherents of Hindi-literature call him ‘Upanyas Samrat’, that is the king of novel writing. What he wrote in his nearly 35-year literary career bears the stamp of a communal togetherness. There is no precedent in Urdu fiction for the intense patriotism that is evident in his writings. He was so obsessed with the freedom movement that he resigned from his good job of 20 years, which he had obtained after a long period of poverty and hardship, in response to Mahatma Gandhi's "non-cooperation" movement. His writings provide vivid images of the social and political life of the early 30-35 years of the twentieth century. He took his characters from everyday life and made these ordinary characters extremely special with his brilliant storytelling and captivating expression. Prem Chand's sense of woman's greatness, femininity and respect for her rights is also not found anywhere else. Prem Chand was both an idealist and a realist. His writings seem to be a constant search for a balance between idealism and realism.
Munshi Prem Chand was born on 31 July 1880 in Mouza Lamhi, near Banaras. His real name was Dhanpat Rai and at home he was called Nawab Rai. It was under this name that he began his literary career. His father, Ajaib Rai, worked for Rs. 20 a month at the Post Office and lived a life of hardship. According to the constitution of the time, Prem Chand received his early education from the village maulvi in the school, then his father was transferred to Gorakhpur and he was admitted in the school there. But soon after, Ajaib Singh changed his mind and returned to his village. When Prem Chand was seven years old, his mother died and his father remarried. After that, the atmosphere in the house became even more bitter than before, from which Prem Chand took solace in books. From a bookseller, he began reading translations of countless novels from world literature. At the age of fifteen, against his will, he married an ugly girl older than him. A few days later, Ajaib Rai also passed away and besides his wife, the responsibility of stepmother and two step brothers fell on his head. He had not even passed the tenth grade yet. He used to walk ten miles barefoot to Banaras every day, teach tuition and return home at night to study. Thus, he passed the matriculation examination in 1889. He did not get admission in the college due to poor arithmetic, so he got a job in a school. He then obtained a degree from Allahabad Training School in 1904 and in 1905 he was posted to a government school in Kanpur. It was here that he met Munshi Diya Narain Nigam, editor of Zamana magazine. This magazine became a launching pad for him in literature. In 1908, Prem Chand moved to Mahoba (Hamirpur district) as a sub-inspector of madrassas. In 1914 he was sent to Basti as a Master Normal School and in 1918 he was transferred to Gorakhpur. The following year he completed his B.Sc. in English, Literature, Persian and History. In 1920, when the non-cooperation movement was on the rise and the Jallianwala Bagh incident took place shortly after, Gandhiji came to Gorakhpur. In 1922, after resigning from his job, Prem Chand opened a spinning wheel shop which did not work, so he got a job in a private school in Kanpur. He then set up the Sarasvati Press in Banaras, which was lost and had to close. Twice in 1925 and 1829, he worked for the Naval Kishore Press in Lucknow, wrote textbooks and edited a Hindi magazine, Madhuri. The government confiscated his writings several times but they somehow managed to get him out. In 1934, he came to Bombay at the invitation of a film company and wrote the story of a film, Mazdoor, but influential people banned its screening in Bombay. The film was released in Delhi and Lahore but was later banned there as well due to fears of unrest in the industry. In this film, he himself played the role of a labor leader. In Bombay, he could have found more writing work in films, but he did not like the ways of the film industry and returned to Banaras. In 1936, Prem Chand was elected president of the Progressive Writers' Association in Lucknow. The last days of Prem Chand's life were full of hardships and constant illness. He died on October 8, 1936.
Prem Chand and his first wife reached an impasse, and the latter left his home for her mother’s. After their separation, Prem Chand married a young widow Shiv Rani Devi against the wishes and customs of the family. He had a daughter Kamala and two sons Shri Pat Rai and Amrit Rai.
Prem Chand's first creation was a comedy-drama he wrote at the age of 14, based on his ugly uncles. The following year, he wrote another play, Honhar Barwa Ke Chakne. Neither of these plays were ever printed. His literary career began five or six years later with a short novel titled ‘Asrar-e-Ma’bid’, which was published serially in the weekly Awaaz-e-Haq in Banaras between 1903 and 1904. But a friend of Prem Chand, Munshi Betab Barelvi, claims that his first novel was Pratap Chandra, which was written in 1901 but was not published and later came out in the form of ‘Jalva-e-Isar’. In 1916, he completed his huge novel "Bazaar-e-Husn" which no publisher could find and it became popular in Hindi under the name "Siva Sadan". The novel was published in Urdu in 1922. The same thing happened with the novels that were written after that. The "Gosht-e-Afeet" was completed in 1922 and was published in 1928. While the Hindi edition of "Prem Ashram" was published in 1922. Nirmala was published in Hindi in 1923 and in Urdu in 1929. "Chogan Hasti" was written in 1924 and published under the name "Rang Bhoomi" and was declared the best work of the year by the Indian Academy, but the novel was published in Urdu in 1927. In this way, Prem gradually became a Hindi writer because he got better compensation from Hindi publishers. The same thing happened with "Ghaban" and "Maidan-e-Amal" (Karam Bhoomi in Hindi). "Gowdan" is Prem Chand's last novel which was published in 1936. In the last few days, Prem Chand had started writing "Mangal Sutra" which remained incomplete.
In addition to the novel, eleven collections of Prem Chand's short-stories have been published. It began in 1907 when he wrote “Duniya Ka sabse anmol ratan”. By 1936, he had written hundreds of stories, but in Urdu this number is about 200 because many Hindi stories could not be translated into Urdu. Soz-e-Watan, Prem Chand's first collection of short-stories, appeared under the pen-name of Nawab Rai. He was questioned by the government and all copies of the book were burnt. After that he started writing under the name of Prem Chand. His other collections include Prem Pachisi, Prem Batisi, Prem Chalisi, Firdous Khayal, Khak Parwana, Khawab Khayal, and Wardat.
No other author has been as influential as Prem Chand in Urdu fiction. Many of his works have been translated into other languages. One of the great virtues of Prem Chand is his simple and smooth language and clear and unpretentious style of writing. He started writing at a time when fictional tales and love stories were rife. Prem Chand came and turned this tide. He took his readers out of the bright and colorful world of the city and into the dark and miserable world of the village. It was the discovery of a new world in Urdu fiction. The study of Prem Chand cannot be justified without understanding the vastness and depth of this world, because the aesthetics of Prem Chand's art and its basic truths were nurtured in this broad context and made it achieve the status of a legend.
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Premchand (born July 31, 1880, Lamahi, near Varanasi , India—died October 8, 1936, Varanasi) was an Indian author of novels and short stories in Hindi and Urdu who pioneered in adapting Indian themes to Western literary styles.
Premchand worked as a teacher until 1921, when he joined Mohandas K. Gandhi ’s Noncooperation Movement . As a writer, he first gained renown for his Urdu-language novels and short stories. Except in Bengal , the short story had not been an accepted literary form in northern India until Premchand’s works appeared. Though best known for his works in Hindi, Premchand did not achieve complete fluency in that language until his middle years. His first major Hindi novel , Sevasadana (1918; “House of Service”), dealt with the prostitution and moral corruption among the Indian middle class. Premchand’s works depict the social evils of arranged marriages, the abuses of the British bureaucracy , and exploitation of the rural peasantry by moneylenders and officials.
Much of Premchand’s best work is to be found among his 250 or so short stories, collected in Hindi under the title Manasarovar (“The Holy Lake”). Compact in form and style, they draw, as do his novels, on a notably wide range of northern Indian life for their subject matter. Usually they point to a moral or reveal a single psychological truth.
Premchand’s other novels include Premashram (1922; “Love Retreat”), Rangabhumi (1924; “The Arena”), Ghaban (1928; “Embezzlement”), Karmabhumi (1931; “Arena of Actions”), and Godan (1936; The Gift of a Cow ).
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By: Shailendra Chauhan
A pioneer of modern Hindi and Urdu social fiction, Munshi Premchand’s real name was Dhanpat Rai. He wrote nearly 300 stories and novels. Among his best known novels are: Sevasadan, Rangmanch, Gaban, Nirmala and Godan. Much of Premchandâs best work is to be found among his 250 or so short stories, collected in Hindi under the title Manasarovar.Three of his novels have been made into films.Premchandâs literary career started as a freelancer in Urdu. He was born at Lamahi near Banaras (now Varanasi) on 31st July,1880. His father Munshi Ajaib Lal was a clerk in the postal department.
Premchandâs early education was in a madarsa under a maulvi, where he learnt Urdu. Premchand was only eight years old when his mother died. His grandmother took the responsibility of raising him but she too died soon. He was married when he was 15 and in the 9th grade . His father also died and after passing the intermediate he had to stop his study. He got a job as a teacher in the primary school. In 1919, he passed his B.A., with English, Persian and History. After a series of promotions he became Deputy Inspectors of Schools. In response to Mahatma Gandhiâs call of non-cooperation with the British he quit his job. After that he devoted his full attention to writing.
His first story appeared in the magazine Zamana published from Kanpur.In his early short stories he depicted the patriotic upsurge that was sweeping the land in the first decade of the past century. Soz-e-Watan, a collection of patriotic stories published by Premchand in 1907, attracted the attention of the British Government In 1914, when Premchand switched over to Hindi, he had already established his reputation as a fiction writer in Urdu. While writing Urdu novels and short stories he emphasised in presenting the realities of life and he made the Indian villages his theme of writing. His novels describe the problems of the urban middle-class and the countryâs villages and their problems. He also emphasised on the Hindu-Muslim unity. His famous works include Godan, Maidan-e-Amal, Bay-wah, Chaugaan etc.
It would not be wrong to say that Premchand was the Father of Urdu short- stories. Short stories or afsanas were started by Premchand. As with his novels, his afsanas also mirror the society that he lived in. With a simple and flowing writing some of his works depict excellent use of satire and humour. His later works used very simple words and he started including Hindi words too to honestly potray his characters.
His famous afsanas are Qaatil Ki Maan, Zewar Ka Dibba, Gilli Danda, Eidgaah, Namak Ka Daroga and Kafan. His collected stories have been published as Prem Pachisi, Prem Battisi, Wardaat and Zaad-e-Raah. Premchand was the first Hindi author to introduce realism in his writings. He pioneered the new form – fiction with a social purpose.He supplemented Gandhijiâs work in the political and social fields by adopting his revolutionary ideas as themes for his literary writings.
Besides being a great novelist, Premchand was also a social reformer and thinker.His greatness lies in the fact that his writings embody social purpose and social criticism rather than mere entertainment. Literature according to him is a powerful means of educating public opinion.He believed in social evolution and his ideal was equal opportunities for all. Premchand died in 1936 and has since been studied both in India and abroad as one of the greatest writers of the century.
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Certainly one of the most popular writers in India, Premchand is one of the most celebrated writers who has his credentials as the earliest Hindustani writer too. Born and raised as Dhanpat Rai, first he tried with a pen name of Nawab Rai but finally, he decided to go with the name which later on went to become the legend – Premchand! He has been widely credited as Upanyas Samrat by writers for his tireless writing of novels. The chaotic person that he was, he has tried his hands well over many different literary genres. The pile of his literary works include more than dozen novels, more than two hundred and fifty short stories, several essays and also translations.
Premchand, the evergreen writer of India, came on the earth on 31 July 1850 in Lahmi, near Varanasi. His life was not like ordinary or casual person’s life; it wasn’t at all straightforward, and the quick deaths of his mother and grandmother had a great impact on him in a very fragile age. As a child, like most of us, he has had a deep interest in listening and reading the stories. At this very early age, he sought his respite in the writing of fiction and it changed the whole story of his life! The first novel by Premchand, Asrar e Ma’abid (DevasthanRahasya) The Secret of God’s Abode came out rather earlier. It tried to explore the priestly corruption and it got the buzz but did not succeed as expected. He often was a very sensitive observer of the human emotions as well as the surroundings and he picked up only the issues close to humane for his writings. In the second novel, Prema, Premchand raised the issues of widow marriages (remarriages) in those times.
Premchand was an active translator as well and he translated the works, rather classics in other languages, into the Hindi language when he began writing in Hindi. And then, his first novel, or the major novel in Hindi, Seva Sadan, came out in 1919. And the novel offered Premchand, the Hindi author, a very popular popularity. It tried to come out with the problems of common people in those times and unfortunately, his novels depict the problems even of the modern society. We don’t believe that Premchand was a mutual visionary; our country has been on the wrong side of the fortune! And after Seva Sadan, Premchand went for a ride of fame with his novels one after one. Nirmala in 1925 and Pratigya in 1927 further pushed the reputation of Premchand to a new height. Readers were now expecting more and more from him and they got as well. Major creations by Premchand are as following:
Idgah Gaban Godan Bade Ghar Ki Beti Namak Ka Daroga Rangbhoomi Shatranj Ke Khiladi
Premchand is certainly one of the major writers of modern India and he offered the readers a realistic fiction which came out with not only the problems but also possible solutions. He is often regarded as one of the pro-poor writers and rightly so, because most of his life, or complete life, in a simple manner.
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